Anubandh Chatustyam- यदि प्रथ्वी की संरचना हुई है तो यह सत्य है की सनातन भी अस्तित्व में है, सनातन वैदिक धर्म के किसी भी शास्त्र का अध्ययन करने से पहले व उसको समझने के लिये अनुबन्ध चतुष्टय की महती (बहुत) आवश्यकता है । बिना इन्हें धारण किये शास्त्र पढ़कर ज्ञानी बनने की इच्छा करना आकाश को दुहकर दूध प्राप्त करने की इच्छा के समान निष्फल है । अधिकारी- सम्बन्ध- विषय- प्रयोजन, यह चार अनुबन्ध चतुष्टय कहलाते हैं । आज की हमारी पोस्ट इसी पर आधारित लिखी गयी है |
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अनुबन्ध चतुष्टयम् – एक रोशनी ज्ञान की
- अधिकारी – संसार में चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि उत्तम है । शास्त्रीय दृष्टि से संसार में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं- पामर, विषयी , मुमुक्षु और जीवन्मुक्त।
पामर — इनमें लोकायतिक, चार्वाक् आदि आते हैं, जो शरीर को ही आत्मा मानते हैं । उनका कथन है कि शरीर के जन्म के साथ ही आत्मा का जन्म होता है। जैसे-जैसे शरीर बढ़ता है, आत्मा का विकास होता है। शरीर के शिथिल होने पर आत्मा शिथिल, इसके नाश होने पर नाश- यह इनलोगों का कहना है । जबतक जियो सुख से जियो । स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, ईश्वर, वेद सब मिथ्या है । वेदों की रचना अज्ञानी निशाचरों ने की है– यह इनका मत है । इनका वेद, शास्त्र, परलोक तथा पुनर्जन्म में विश्वास नहीं है । गीता के सोहलवें अध्याय में भगवान् इनके लिये ही कहते हैं :-
“आसुरीं योनिमापन्ना: मूढा: जन्मनि जन्मनि।
(श्रीमद्भगवद्गीता १६/२०)
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।”
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! वे लोग प्रत्येक जन्म में तमो-प्रधान आसुरी योनि को प्राप्त करते हैं। मुझे प्राप्त न होकर इससे भी अधिक कूकर-सूकर योनियों में जन्मते हैं ।
विषयी — यह आत्मा-परमात्मा को मानते हैं । परलोक, ईश्वर तथा वेद में विश्वास रखते हैं । परन्तु पांच विषयों में अत्यन्त आसक्त होने के कारण परलोक तथा शास्त्रों की बातें इनको अच्छी नहीं लगती । किसी के विशेष दबाव डालने पर नाममात्र के तामसी देवताओं की आराधना करते हैं । कभी-कभी तो दुष्प्रचार व अज्ञान के कारण ये लोग उनकी भी पूजा करने लगते हैं जो देवता हैं ही नहीं, सामान्य मनुष्य हैं । साईं बाबा को पूजने वाले, रामपाल के भक्त, जयगुरुदेव के भक्त, राधा स्वामी वाले, ब्रह्मकुमारी के भक्त आदि आस्तिक होने पर भी निश्चित् ही नरक को प्राप्त करते हैं तथा जबतक जीवित हैं तबतक कष्टप्रद व दिशाहीन आराधना करके दुःख भोगते हैं ।
मुमुक्षु — इनको ईश्वर, वेद, धर्मशास्त्र, गुरु तथा पुनर्जन्म में विश्वास है । आरम्भ में सकाम कर्म उपासना करके लौकिक कामना पूर्ण होने पर इनका विश्वास दृढ़ हो जाता है । किन्तु बाद में सत्शास्त्रों के पठन-पाठन , सत्संग करने से विवेक सहित वैराग्य हो जाने पर अंतःकरण के तीन दोषों को दूर करने के लिये निष्काम भाव से उपासना करते हैं । तीन दोषों में मल अर्थात् जन्मान्तरों का पाप , विक्षेप अर्थात् चंचलता एवं आवरण अर्थात् पर्दा – ज्ञान को ढंकने वाला – इनसे छूटकर मुक्ति की इच्छा करता हैं ।
जीवनमुक्त — जो कृतार्थ हो चुके हैं । जिन्होंने कर्मोपासना से अंतःकरण शुद्ध कर लिया है । अन्त में विवेक सहित उत्कट वैराग्य हो जाने पर स्त्री, पुत्र, परिवार, धन आदि छोड़कर श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु की शरण में जा करके, विधिवत् संन्यास लेकर, जीवात्मा-परमात्मा की एकता का अनुभव कराने वाले महावाक्यों का तथा प्रस्थानत्रयी का गुरु के द्वारा श्रवण-मनन-निदिध्यासन करके अथवा हठयोग की धारणा-ध्यान-समाधि रूपी संयम अर्थात् अन्तरङ्ग साधनों द्वारा आत्मदर्शन करके जिन्होंने जीवनमुक्ति का आनन्द प्राप्त किया है — उनको जीवन्मुक्त कहते हैं ।
इन चार प्रकार के मनुष्यों में से दो को वेदान्त के ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार नहीं है । क्योंकि पापियों को ऐसे ग्रन्थों में श्रद्धा-विश्वास ही नहीं । विषयी पुरुषों को भोगों में ही आनन्द प्राप्त होता है । उनमें श्रद्धा-विश्वास का अभाव है । अतः दोनों का वेदान्त-शास्त्र में अधिकार नहीं ।
चौथे जीवन्मुक्त महात्मा जो देहाध्यास से परे हो चुके हैं । जिन्हे शीत-उष्ण, भूख-प्यास, सुख-दुःख आदि का भान नहीं है । जो ज्ञान की छठीं पदार्थाभाविनी या सातवीं तुर्यगा में पहुँचकर कृतार्थ हो चुकें हैं, उनको कोई कार्य करना शेष नहीं । ऐसे ब्रह्मकोटि या अवधूत कोटि के महात्मा अधिकारातीत हो जाने के कारण उनको भी ग्रन्थ के पठन-पाठन से कोई प्रयोजन नहीं । क्योंकि वेदान्त ग्रन्थों के तात्पर्य का जो महाफल हैं, वे उसे चख चुकें हैं ।
अतः तीसरी कोटि के जिज्ञासु या मुमुक्षुओं का ही इसमें अधिकार है । जिनका इष्टदेव के समान ही गुरुओं में श्रद्धा तथा विश्वास है तथा जो विवेक-वैराग्य सम्पन्न हैं, उनको वेदान्त-शास्त्र पढ़ने का अधिकार है ।
2. सम्बन्ध — ग्रन्थ का विषय के साथ क्या सम्बन्ध है ? इसे सम्बन्ध से बताया जाता है ।
3. विषय — ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय व पादों में किस विषयवस्तु का प्रतिपादन किया गया है ? इसे विषय शब्द से बताया गया ।
4. प्रयोजन — जिस ग्रन्थ का अनुशीलन करते हैं, उसका प्रयोजन भी ज्ञात होने चाहिए । यथा वेदान्त शास्त्र के अनुशीलन का प्रयोजन अपने-अपने वर्णाश्रमों के अनुसार निष्काम भाव से इष्टदेवता की प्रसन्नता के लिए अभिमान त्यागकर ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म-उपासना करके कारण सहित (अविद्या सहित) आध्यात्मिक-आधिदैविक-आधिभौतिक – जन्म-मरणादि दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्तिपूर्वक परमानन्द की प्राप्ति रूपी जीवनमुक्ति का आनन्द तथा तथा तीनों शरीरों के त्याग सहित विदेह-कैवल्य मुक्ति की प्राप्ति ही प्रयोजन है।
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