(Ganesh ji Parmatma) श्री गणेश जी परमात्मा स्वरूप हैं कैसे तो आइये जानते है इस लेख के माध्यम से आखिर गणेश जी में यह सब कैसे है जिससे उन्हें सर्वप्रथम पूजन का वरदान दिया उसका वास्तविकता में अर्थ क्या है।
लिखित है कि गणेश शब्द का सन्धि विच्छेद करने पर गण – ईश दो शब्द होते हैं।
गण शब्द का अर्थ है समूह और ईश का अर्थ है स्वामी ! अर्थात् गण का स्वामी । ‘गण’ है देवगण, देवताओं के सेवक । इसके अतिरिक्त गण के दो अक्षर ‘ग’ और ‘ण’ है जिनका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है- ‘ग’ ज्ञानार्थ वाचक और ‘ण’ निर्वाण वाचक है अर्थात् गणेश ज्ञान और निर्वाण के स्वामी हैं। यह परब्रह्म परमात्मा का पर्याय होता है ।
गणेश पुराण के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि गणेश परमात्मा स्वरूप हैं । उन्हीं से सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति हुई है । आदि मूल परमेश्वर का ही एक रूप श्री गणेश हैं। श्री गणेश के जन्म कथानकों के आधार पर भी उन्हें देवों का देव गणपति कहा जाता है ।
वेदमन्त्रों में ॐ शब्द महत्वपूर्ण है। ओ३म् का अर्थ है सच्चिदानन्द का विकसित रूप। सभी मन्त्रों में यह आदि अक्षर है। मूल शब्द ब्रह्म रूप है। गणेश की मूर्ति की रचना भी ॐ से हुई है ।
ओम में, पहला भाग पेट का प्रतीक है, मध्य भाग दाढ़ी वाले कर्मचारी, अर्धचंद्राकार दांत और बिंदु मोदक का प्रतीक है। गणेश जी की मूर्ति में जब ध्यान लगाते हैं तो मूर्ति का आनन हमें ॐ के आकार का लगेगा ।
वेदमन्त्रों में गणेश जी को गणपति कहा गया है। गण हमारी रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी वृत्तियों का समूह भी है। इन सबके स्वामी श्री गणेश जी ही हैं।
इसी प्रकार गणेश जी गुणीश हैं । वे सब गुणों के ईश हैं। ईश्वर अपने गुण, ज्ञान और आनन्द के स्वरूप हैं। इन्हीं गुणों के ईश गणेश हैं । अतः साक्षात् ईश्वर हैं ।
समस्त दृश्य-अदृश्य विश्व का वाचक ‘ग’ तथा ‘ण’ अक्षर द्वारा जितना मन, वाणी और तत्व रहित जगत् है, सबका ज्ञान मन और वाणी द्वारा होता है। उसके स्वामी होने से गणेश जी सब देवों के देव हैं। देवों में अग्रगण्य हैं ।
गणेश जी ब्रह्म स्वरूप हैं। इसे निम्न उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है-
श्री गणेश जी की आकृति की जो कल्पना की गई है या उनका जो रूप पुराणों में दिया गया है उसके अनुसार उनका मुख गज के समान है। अतः उन्हें गजानन, गजपति कहते हैं। कंठ के नीचे का भाग मनुष्य जैसा है। इस प्रकार उनके शरीर में हाथी और मानव का सम्मिश्रण है।
गज साक्षात् ब्रह्मा को कहते हैं योग द्वारा जब मुनि अन्तिम योगांग-समाधि को सिद्ध करते हैं तो उस स्थिति में वे जिसके पास पहुँचते हैं उसे ‘ग’ कहा जाता है । जिससे यह जगत् उत्पन्न होता है उसे ‘ज’ कहते हैं। दोनों अक्षरों से ‘गज’ बनता है। गज का अर्थ विश्व कारण होने से ब्रह्मा होता है । अतः गज ब्रह्म है तथा गणेश जी के कंठ के ऊपर का भाग ब्रह्म स्वरूप ही है।
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