Pradosh Vrat Katha – मान्यताओं के अनुसार वर्तमान माह की त्रयोदशी तिथि का प्रदोष काल मे होना ही, प्रदोष व्रत होने का सुनिश्चित कारण है। प्रदोष काल सूर्यास्त से 45 मिनट पहिले प्रारम्भ होकर सूर्यास्त के बाद 45 मिनट तक माना जाता है।
प्रदोष का दिन जब साप्ताहिक दिवस सोमवार को होता है उसे सोम प्रदोष व्रत भी कहते हैं, इसी तरह से मंगलवार को होने वाले प्रदोष को भौम प्रदोष व्रत तथा शनिवार के दिन प्रदोष को शनि प्रदोष व्रत कहते हैं।
भाद्रपद कृष्ण प्रदोष व्रत: बुधवार, 24 अगस्त 2022 को आ रही है वैसे तो त्रयोदशी तिथि ही भगवान सदा शिव की पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ है। परंतु प्रदोष के समय शिवजी की पूजा करना और भी लाभदायक है।
ध्यान देने योग्य तथ्य: प्रदोष व्रत एक ही देश के दो अलग-अलग शहरों के लिए अलग हो सकते हैं। चूँकि प्रदोष व्रत सूर्यास्त के समय, त्रयोदशी के प्रबल होने पर निर्भर करता है। तथा दो शहरों का सूर्यास्त का समय अलग-अलग हो सकता है, इस प्रकार उन दोनो शहरों के प्रदोष व्रत का समय भी अलग-अलग हो सकता है। इस बात का विशेष रूप से ध्यान दें |
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इसीलिए कभी-कभी ऐसा भी देखने को मिलता है कि, प्रदोष व्रत त्रयोदशी से एक दिन पूर्व अर्थात द्वादशी तिथि के दिन ही हो जाता है और भूल चूक में व्यक्ति ध्यान नहीं दे पाता ।
सूर्यास्त होने का समय सभी शहरों के लिए अलग-अलग होता है अतः प्रदोष व्रत करने से पूर्व अपने शहर का सूर्यास्त समय अवश्य जाँच लें प्रदोष व्रत चन्द्र मास की शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की दोनों त्रयोदशी के दिन किया जाता है।
क्या है प्रदोष व्रत कथा की विधि विधान – Pradosh Vrat Katha Vidhi Vidhaan.
- प्रदोष व्रत करने के लिए व्यक्ति को त्रयोदशी के दिन प्रात: सूर्य उदय से पूर्व उठना चाहिए।
- नित्यकर्मों से निवृ्त होकर, भगवान श्री भोले नाथ का स्मरण करें।
- इस व्रत में आहार नहीं लिया जाता है ।
- पूरे दिन उपावस रखने के बाद सूर्यास्त से एक घंटा पहले, स्नान आदि कर श्वेत वस्त्र धारण करें ।
- पूजन स्थल को गंगाजल या स्वच्छ जल से शुद्ध करने के बाद, गाय के गोबर से लीपकर, मंडप तैयार किया जाता है।
- अब इस मंडप में पांच रंगों का उपयोग करते हुए रंगोली बनाई जाती है।
- प्रदोष व्रत कि आराधना करने के लिए कुशा के आसन का प्रयोग किया जाता है।
- इस प्रकार पूजन की तैयारियां करके उत्तर -पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे और भगवान शंकर का पूजन करना चाहिए।
- पूजन में भगवान शिव के मंत्र ‘ऊँ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए शिव को जल चढ़ाना चाहिए ।
क्या है प्रदोष व्रत की महिमा – Pradosh Vrat Katha Mahima.
प्रदोष व्रत को रखने से दो गायों को दान देने के समान का पुन्य फल प्राप्त होता है। प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि एक दिन जब चारों ओरर अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी। व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यों को अधिक करेगा। उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी। इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।
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प्रदोष व्रत कथा प्रारंभ – Pradosh Vrat katha Prarambh.
प्रदोष व्रत कथा
सूतजी के मुख से इतनी कथा श्रवण कर ऋषियों के मध्य में बैठे महर्षि गर्गाचार्य बोले-हे महामुने! आपने हमारे ऊपर परम कृपा करके प्रदोष व्रत का विधान बताया है अब आप विशेष कृपा करके हम लोगों को पक्ष प्रदोष व्रत का विधान बताने की कृपा कीजिये। तब सूतजी बोले- हे ऋषियों! अब मैं आपकी इच्छानुसार पक्ष प्रदोष व्रत का विधान वर्णन करता हूँ, आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिये ।
एक ग्राम में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मणी रहती थी, जिसे नित्यप्रति भर पेट भोजन भी नहीं मिलता था। इससे दुखी होकर वह वन में चली गई। चलते-चलते वह शांडिल्य मुनि के आश्रम में जा पहुँची और उन्हें दण्डवत कर अपनी दुःख भरी गाथा सुना दी। जिसे सुन कर शांडिल्य ऋषि को दया आ गयी। वे बोले-मैं तुमको दुखों से छुटकारा पाने का सरल उपाय बताता हूँ। तुम विधि पूर्वक प्रत्येक मास की त्रयोदशी को प्रदोष व्रत रहा करो इससे भगवान् शंकर तुम पर प्रसन्न होकर सारे दुःख दारिद्र को दूर कर तुम्हें सुखी बनायेंगे।
यह सुन कर ब्राह्मणी बोली- हे महामुने! आप दया करके मुझे प्रदोष व्रत का विधान बताने की कृपा करें। मैं इस व्रत को अवश्य करूंगी। शांडिल्य मुनि बोले- जिस दिन त्रयोदशी होवे, उस दिन प्रभात बेला में शैय्या त्याग शौच आदि क्रियाओं से निवृत्त हो स्नान कर एक लोटे में स्वच्छ जल लेकर पद्मासन लगा कर ‘ॐ गंगा विष्टाओ नमः । ॐ भगवते वासुदेवाय नमः ।’ ‘ॐ गोविन्दाय नमः ।’ इन तीनों से आचमन करे फिर हाथ स्वच्छ कर पुनः हाथ में जल ले “ ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा यः स्मरेतपुण्डीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः ” इस मन्त्र से अपनी देह पर जल का छींटा दे। पुनः हाथ में जल लेकर संकल्प करे – हे महादेव! मई आपकी शरणागत हूँ| हे गौरपते! मेरे सकल दुख दारिद्र का नाश कीजिये। हे आशुतोष! मुझे अभय दान दीजिये और मेरी पूजा प्रार्थना स्वीकार कीजिये, कह कर जल को धरती पर छोड़ दे, तत्पश्चात् शान्त चित्त से भगवान् भोले शंकर का पूजन आरम्भ करे।
शिवजी को स्नान, परिधान, धूप, दीप, नैवेद्य, बिल्वपत्र अर्पण कर आरती करे। इसके बाद ध्यान करे-कैलाशपति! जिनके मस्तक पर गंगा की पवित्र धारा प्रवाहित हो रही है, चन्द्रमा के प्रकाश से सुशोभित त्रिनेत्र बाघम्बर धारी, गले में सर्पों की माला पहने हाथों में त्रिशूल तथा डमरू धारण किये हुये जिनके वामांग में कमल के समान सुन्दर मुख वाली सूर्य प्रभा के समान तेजोमयी गौरांग वर्ण वाली भगवती पार्वती, जिसके चारों हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्य विराजमान है, ऋषि पत्नियों के सहित सुशोभित हो रही हैं।
इसके अनन्तर मन्त्रों के द्वारा “ ॐ धर्माय नमः, ॐ ज्ञानाय नमः, ॐ वैराग्याय नमः, ॐ ऐश्वर्याय नमः” कह कर कात्यायनी, सरस्वती और लक्ष्मी जी का पूजन करे इन्द्र वरुण, कुबेर आदि का स्मरण कर इस प्रकार प्रार्थना करे हे देवाधिदेव! आप ही सकल जगत् के स्वामी हैं, आप ही दुखियों के दुखहर्ता, विपत्तियों से रक्षा करने वाले और भक्तों का कल्याण करने वाले हैं हे नाथ! मैं आपकी शरण हूँ। हे प्रभो! मेरे दुख को दूर कर मुझे भाग्यशाली बनाइये। ॐ तदनन्तर यथाशक्ति ब्राह्मणों को दक्षिणा दे, भोजन करावे और आशीर्वाद प्राप्त करे। शांडिल्य ऋषि बोले-हे पुत्री! मैंने जो शिवपूजन का विधान तुमको बताया है इसका एक वर्ष पर्यन्त पालन करने से तुम्हारे समस्त दुःख दूर हो जायेंगे और तुम्हारा कल्याण होगा।
शौनकादि ऋषि बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपने जो ब्राह्मणी की कथा सुनाई वह अत्यन्त रोचक तथा कल्याणकारक है। अब आप हमें यह बताइये कि उस ब्राह्मणी ने प्रदोष व्रत किया या नहीं; यदि व्रत किया तो उसे क्या फल प्राप्त हुआ? सूतजी बोले- हे ऋषियों! अब तुमको वही कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो।
दैवयोग से उस दिन त्रयोदशी ही थी अतः ब्राह्मणी ने ऋषि के कथनानुसार व्रत करना आरम्भ कर दिया। कुछ समय व्यतीत होने पर ब्राह्मणी का छोटा लड़का तालाब में स्नान करने गया तो भगवान् शंकर की कृपा से उसे रास्ते में सोने से भरा हुआ एक कलश प्राप्त हुआ। वह मन में आनन्दित होता हुआ ब्राह्मणी के समीप आकर बोला- हे माता! भगवान् शंकर की दया से मुझे यह सोने से भरा हुआ कलश प्राप्त हुआ है।
ब्राह्मणी बोली-दोनों भाई इसका आधा-आधा भाग ले लो। यह सुन बड़ा भाई धर्मगुप्त बोला-हे माता! मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं, यह तो छोटे भाई का ही भाग है, अतः मैं नहीं लूँगा । यदि भगवान! शंकर की कृपा होगी तो मुझे भी धन प्राप्त होगा और बड़े भाई ने धन नहीं लिया। कुछ काल व्यतीत होने पर एक दिन दोनों भाई विचरण करते हुये एक वन के मध्य में पहुँचे तो वहाँ उनको अनेक रूपवती गन्धर्व कन्यायें किलोल करती हुई दिखाई पड़ीं।
यह देख शुचिव्रत नामक छोटा भाई बोला- मैं स्त्रियों में नहीं जाऊँगा और वह वहीं रुक गया। बड़ा भाई राजपुत्र कन्याओं के समूह पहुँचा। उसके सुन्दर स्वरूप को देखकर उनमें से एक गन्धर्व-कन्या उस पर मोहित हो टकटकी लगा उसे निरखने लगी। अन्य गन्धर्व कन्यायें राजपुत्र को देख उससे कुछ दूर चली गईं ओर राजपुत्र तथा वह गन्धर्व कन्या वहाँ रह गई, तब वह उसके समीप गया ।
गन्धर्व कन्या ने उससे प्रश्न किया- आप कौन हैं? और इस वन में आपका कैसे आना हुआ? तब राजपुत्र बोला- मैं विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त हूँ, मेरे पिता का स्वर्गवास हो गया और शुत्रओं ने हमारा राज्य छीन लिया है, अतः मैं विवश होकर अपनी रक्षा हेतु इस वन में आया हूँ। अब आप भी अपना परिचय देने की कृपा करें। तब वह गन्धर्व कन्या बोली- मैं विद्रवक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ और मेरा नाम अंशुमती है, मैंने अपनी सूक्ष्म बुद्धि द्वारा आपके मन की भावना जान ली है, आप मुझ पर अनुरक्त हैं, मेरा मन भी आपको देखकर चञ्चल हो रहा है।
कदाचित् ईश्वर ने हम दोनों का निर्माण एक दूसरे के लिये ही किया है, इतना कह गन्धर्व पुत्री ने राजपुत्र के गले में अपनी मणिमाला पहना दी। तब राजपुत्र बोला- हे सुमुखि ! मैंने तुम्हारा यह प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया, किन्तु मैं अत्यन्त निर्धन हूँ, मेरा तुम्हारा विवाह कैसे हो सकेगा? तब अंशुमती बोली हे राजपुत्र! आप चिंता न करें, मेरे माता पिता आपको देखकर बड़े प्रसन्न होंगे और विवाह की स्वीकृति दे देंगे परसों प्रातः काल आप यहाँ पर अवश्य आना इतना सुन राजपुत्र गन्धर्वकन्या से विदा माँग अपने घर आया सारा हाल अपनी माता को सुनाया और सब लोग शिवपूजन करके सो गये।
सूतजी महाराज बोले- हे ऋषियों! तीसरे दिवस राजपुत्र अपने भाई शुचिव्रत को साथ लेकर उसी वन में गया। उधर वह गन्धर्व कन्या अंशमती भी अपने पिता विद्रवक को अपने साथ लेकर आई। गन्धर्वराज ने जब राजपत्र को देखा तो अत्यन्त प्रसन्न होकर बोला- हे राजपुत्र। कल मैं कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास गया था।
भगवान् शंकर से इस कन्या के योग्य वर की प्रार्थना की थी, तो उन्होंने कहा कि धर्मगुप्त नामक मेरा एक भक्त पृथ्वी पर निवास करता है। उसका राज्य उसके शत्रुओं ने छीन लिया है, वही इस कन्या के योग्य श्रेष्ठ वर है। तुम उसी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दो और उसकी सहायता करके उसका राज्य उसे वापस दिला कर राजा बना दो।
हे राजपुत्र शिवजी की आज्ञानुसार मैं अपनी कन्या का विवाह आप के साथ करने के लिये प्रस्तुत हूँ। गन्धर्वराज की बात सुनकर राजपुख ने भी अपनी स्वीकृति दे दी। तब गन्धर्वराज ने अपनी कन्या का विवाह राजपुत्र के साथ कर दिया। दहेज में हीरे, मोती, जवाहरात, सोना, चाँदी, अनगिनत दास दासी और शत्रुओं का विनाश करने के लिये विशाल चतुरङ्गिणी सेना प्रदान की और सबको यथायोग्य स्वागत सत्कार सहित विदा कर अपने लोक को गया ।
इधर राजपुत्र ने अपनी समस्त सेना ले विदर्भ-राजा पर चढ़ाई कर दी, युद्ध में उसका वध कर दिया। एवं अपने शत्रुओं का विनाश किया और पुनः विदर्भ का राजा बनकर आनन्द पूर्वक राज करने लगा। धर्मगुप्त के विदर्भ देश के राजा बन जाने पर उसका छोटा भाई शुचिव्रत और उसकी माता अति आनन्दपूर्वक भगवान शंकर का गुणानुवाद करते हुये जीवन व्यतीत करने लगे। इस प्रकार जो भी पुरुष या स्त्री प्रदोष व्रत का अद्धा भक्ति सहित शिवजी का पूजन करेगा, उसके दुख द्वारिद्र्य नष्ट होकर सभी मनोरथ पूर्ण होंगे।
सूतजी बोले- हे ऋषियों समस्त व्रतों में यह सबसे श्रेष्ठ है और प्राणी मात्र की समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसको विधि-विधान से करने पर जन्म-जन्मान्तर के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। और प्राणी पृथ्वी के समस्त सुखों का उपभोग कर अन्तकाल में शिवलोक प्राप्त करता है। ॐ हर हर हर महादेव!
भगवान श्री शिव जी की आरती – Bhagwan SHri SHiv ji ki Aarti.
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥
अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी ।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी ॥
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगें ।
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे ॥
कर के मध्य कमण्डल चक्र त्रिशूलधारी,
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी ॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका
लक्ष्मी वर सावित्री पार्वती संगे ।
अर्द्धांगी गायत्री, सिर सोहे गंगे ।
पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।
जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला ।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ॥
काशी में विश्वनाथ विराजे, नन्दो ब्रह्मचारी ।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥
त्रिगुण स्वामी की आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे॥