रमा एकादशी व्रत कथा | Rama Ekadashi vrat katha Hindi.

जिस तरह हिन्दू धर्म में हर त्यौहार को मनाया जाता है उसी तरह हमारे पुराणों में एकादशी व्रत का महत्त्व माना गया है सभी एकादशी का अलग अलग महत्त्व है उसी तरह रमा एकादशी व्रत का महत्त्व भी है।

Rama Ekadashi vrat katha Hindi – रमा एकादशी व्रत का महत्त्व स्वयं भगवान कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को अपने मुखारबिंद से वर्णन किया है तो चलिए आज रमा एकादशी व्रत नियम और रमा एकादशी व्रत कथा दोनों हम यहाँ वर्णित कर रहे है।

रमा एकादशी व्रत का महत्त्व एवं रमा एकादशी व्रत नियम

द्वापर युग में एक समय धर्मराज युधिष्ठिर प्रभु से बोले कि हे भगवन ! आप मुझे कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की एकादशी व्रत का महत्त्व सुनाइये। इस एकादशी का नाम क्या है तथा इसको धारण करने से कौन सा फल मिलता है ? हे! केशव सब विस्तार पूर्वक कहिये तब श्री कृष्णा भगवान बोले कि हे राजन! कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम रमा एकादशी है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

  • मान्यता के अनुसार एकादशी के व्रत नियम में चावल का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • व्रत करने वाले व्यक्ति को इस दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
  • एकादशी तिथि से 1 दिन पहले दशमी तिथि को सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए।
  • एकादशी के दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को एक समय फलाहार करना चाहिए।
  • इस दिन घर में ना तो तामसिक भोजन बनाना चाहिए और ना ही खाना चाहिए।
  • एकादशी व्रत में व्रत कथा जरूर सुने इससे वृत्ति को कई गुना अधिक फल प्राप्त होते हैं।

अथ रमा एकादशी व्रत कथा महात्म्य

प्राचीन काल में मुचुकुन्द नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके इन्द्र, वरुण, कुवेर विभीषण आदि मित्र थे। वह सत्यवादी तथा विष्णु भक्त था । उसका राज्य बिल्कुल निष्कंटक था । उसके एक उत्तम चन्द्रभागा नाम की लड़की उत्पन्न हुई । उसने उस लड़की का विवाह राजा चन्द्रसेन के पुत्र सोभन के साथ किया । एक समय जब कि वह अपनी ससुराल में थी. एक एकादशी पड़ी। चन्द्रभागा सोचने लगी कि अब एकादशी समीप हो आई है। परन्तु मेरा पति अत्यन्त कमजोर है इसलिए यह व्रत नहीं कर सकती परन्तु मेरे पिता की कठिन आज्ञा है

जब दशमी आई तब राज्य में ढिंढोरा पिटा उसको सुनकर सोभन अपनी पत्नी के पास गया और बोला कि हे प्रिय ! तुम मुझे कुछ उपाय बतलाओं क्योंकि मैं व्रत करूंगा तो मैं अवश्य ही मर जाऊंगा, इस पर चन्द्र भागा बोली, हे प्राणनाथ! मेरे पिताजी के राज्य में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं कर सकता है। यहां तक कि हाथी, घोड़ा, ऊंट पशु आदि भी तृण, अन्न जल आदि ग्रहण नहीं करते फिर यहां मनुष्य कैसे भोजन कर सकते हैं। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो दूसरे स्थान को चले जाइये। क्योंकि यदि आप इसी स्थान पर रहोगे तो आपको बत अवश्य ही करना पड़ेगा। उस पर सोभन बोला कि हे प्रिय ! तुम्हारा कहना बिल्कुल सत्य है । मैं व्रत अवश्य करूँगा । जो भाग्य में लिखा है वह होवेगा ही ।

ऐसा विचार करके उसने एकादशी का व्रत किया और वह भूख और प्यास से अत्यन्त पीड़ित होने लगा । सूर्य भगवान भी अस्त हो गये और जागरण के लिये रात्रि हुई । वह रात्रि सोभन को दुख देने वाली थी। दूसरे दिन प्रातः से प्रथम ही सोभन चल बसा। राजा ने उसके शरीर का दहन करा दिया। चन्द्र भागा अपने पति की आज्ञानुसार ‘अग्निदहन न हुई परन्तु पिता के घर में रहना उत्तम समझा ।

रमा एकादशी के प्रभाव से सोभन को मन्दराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रु रहित एक उत्तम नगर प्राप्त हुआ । उस के महल में रत्न तथा स्वर्ण के खम्भे लगे हुये थे। वहां पर वह स्वर्ण तथा मणियों के सिंहासन पर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त बैठा हुआ था आभूषणों से युक्त गन्धर्व तथा अप्सरा इसकी स्तुति कर रहे थे । उस समय राजा सोभन दूसरा इन्द्र प्रतीत हो रहा था।

एक समय मुचुकुन्द नगर में रहने वाला एक सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण तीर्थ यात्रा के लिये निकला । उसने घूमते-घूमते उसको देखा । वह ब्राह्मण उसको अपने राजा का जमाई जान कर उसके निकट गया। राजा सोभन ब्राह्मण को देख आसन से उठ खड़ा हुआ और अपने तथा स्त्री चन्द्रभागा की कुशलता को पूछने लगा- सोमशर्मा ब्राह्मण बोला कि हे राजन ! हमारे राजा कुशल हैं तथा आपकी पत्नी चन्द्रभागा भी कुशल है अब आप अपना वतान्त बतलाइये।

मुझे यह बड़ा आश्चर्य है कि ऐसा विचित्र और सुन्दर नगर जिसको न तो मैंने कभी सुना और न कभी देखा है आपको किस प्रकार प्राप्त हुआ ? सोभन बोला कि हे देव ! यह सब कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की रमा एकादशी के व्रत का प्रभाव है। इसी से मुझे यह अनुपम नगर प्राप्त हुआ है। परन्तु यह अध्रुव है इस पर ब्राह्मण बोला किं हे राजन! यह अध्रुव क्यों है और ध्रुव किस प्रकार हो सकता है सो आप मुझे समझाइये । मैं आप के कहे अनुसार ही करूंगा आप इसमें बिल्कुल झूठ न समझें सोभन बोला कि हे देव ! मैंने अद्धा पूर्वक व्रत किया था उसके प्रभाव से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ है इसलिये मैं इसे अध्रुव मानता हूँ । यदि तुम इस वृतान्त को राजा मुचुकुन्द की पुत्री चन्द्रभागा से कहोगे तो वह उसको ध्रुव बना सकती है।

ब्राह्मण ने वहां आकर चन्द्रभागा से समस्त वृतांत कहा इस पर राजकन्या चन्द्रभागा बोली कि हे ब्राह्मण देव ! आप क्या वह सब वृतांत प्रत्यक्ष देखकर आये हैं या अपना स्वप्न कह रहे हैं ? इस पर ब्राह्मण बोला कि हे पुत्री ! मैंने तेरे पति सोभन को प्रत्यक्ष देखा है परन्तु है वह नगर अध्रुव है। तू कोई ऐसा उपाय कर जिससे कि वह ध्रुव हो जाय। इस पर चन्द्र भागा बोली कि हे महाराज ! आप मुझे उस नगर में ले चलिये, मैं अपने पति को देखना चाहती हूँ। मैं अपने व्रत के प्रभाव से उस नगर को ध्रुव बना लूंगी।

चन्द्रभागा के वचनों को सुनकर वह ब्राह्मण उसको मन्दराचल पर्वत के पास वामदेव के आश्रम को ले गया। वामदेव ने उसकी कथा को सुनकर चन्द्रभागा को मन्त्रों से अभिषेक किया । चन्द्रभागा मन्त्रों तथा व्रत के प्रभाव से दिव्य देह धारण करके पति के पास चली गई।

सोभन ने अपनी स्त्री चन्द्रभागा को देखकर प्रसन्नता पूर्वक उसे वाम अंग में बैठाया । चन्द्र भागा बोली कि हे प्राण नाथ ? अब आप मेरे पुराय को सुनिये जब मैं अपने पिता के गृह में 7 वर्ष की थी तब ही से मैं सविधि एका दशी का व्रत करने लगी हूँ उन्हीं व्रतों के प्रभाव से आपका यह नगर ध्रुव हो जायेगा और समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अन्त तक रहेगा । चन्द्रभागा दिव्यरूप धारण करके तथा दिव्य वस्त्रालंकारों से सजकर अपने पति के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी और सोभन उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा ।

हे राजन ? यह मैंने रमा एकादशी का महात्म्य कहा है जो मनुष्य रमा एकादशी के व्रत को करते हैं उनके समस्त ब्रह्महत्या आदि के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य रमा हैं एकादशी का महात्म्य सुनते हैं वह अन्त समय विष्णु लोक को जाते हैं ।

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आरती – एकादशी व्रत कथा

जगदीश जी की आरती | Aarti Om Jai Jagdish Hare

ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे ।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

जो ध्यावे फल पावे,
दुःख बिनसे मन का,
स्वामी दुःख बिनसे मन का ।
सुख सम्पति घर आवे,
सुख सम्पति घर आवे,
कष्ट मिटे तन का ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

मात पिता तुम मेरे,
शरण गहूं किसकी,
स्वामी शरण गहूं मैं किसकी ।
तुम बिन और न दूजा,
तुम बिन और न दूजा,
आस करूं मैं जिसकी ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

तुम पूरण परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी,
स्वामी तुम अन्तर्यामी ।
पारब्रह्म परमेश्वर,
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सब के स्वामी ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता,
स्वामी तुम पालनकर्ता ।
मैं मूरख फलकामी,
मैं सेवक तुम स्वामी,
कृपा करो भर्ता॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
स्वामी सबके प्राणपति ।
किस विधि मिलूं दयामय,
किस विधि मिलूं दयामय,
तुमको मैं कुमति ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

दीन-बन्धु दुःख-हर्ता,
ठाकुर तुम मेरे,
स्वामी रक्षक तुम मेरे ।
अपने हाथ उठाओ,
अपने शरण लगाओ,
द्वार पड़ा तेरे ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
स्वमी पाप(कष्ट) हरो देवा ।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
सन्तन की सेवा ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

ॐ जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे ।
भक्त जनों के संकट,
दास जनों के संकट,
क्षण में दूर करे ॥

॥ ॐ जय जगदीश हरे ॥

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