सौम्य प्रदोष व्रत कथा (Somya Pradosh Vrat Katha)
प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र के साथ ऋषियों की आज्ञा से भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती थी। भिक्षा में जो मिलता उससे अपना काम चलाती और प्रदोष व्रत भी करती। (Solah Somvar Vrat Katha Aarti)
एक दिन उसे विदर्भ देश का राजकुमार मिला जिसे शत्रुओं ने राजधानी से बाहर निकाल कर उसके पिता को मार दिया था। ब्राह्मणी ने उस राजकुमार को अपने आश्रम में लाकर उसको पालन किया।
एक दिन राजकुमार धर्मगुप्त और ब्राह्मण के बालक ने वन में गन्धर्व कन्याओं को देखा। राजकुमार उनमें से एक बालिका अंशुमाते से बातें करने लगा और उसके साथ चला गया। ब्राह्मण बालक घर लौट आया। अंशुमति के माता-पिता ने अंशुमति का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त के साथ कर दिया। उन्होंने शत्रुओं को परास्त कर विदर्भ का राजा बनाया।
धर्मगुप्त को उस ब्राह्मण के बालक की याद रही और उसने ब्राह्मण कुमार को अपना मन्त्री तथा ब्राह्मणी को राजमाता बना दिया। यथार्थ में, यह प्रदोष व्रत का फल था। तब से यह व्रत इस लोक में प्रसिद्ध हुआ।
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सोलह सोमवार व्रत कथा (Solah Somvar Vrat Katha)
माधव भगवान् की पुरी मधुपुरी में भगवान् चन्द्रभाल शिवजी का एक अति दिव्य आश्रम है। वहाँ भूतों के पति महारुद्र जगदम्बा पार्वती के साथ निवास करते हैं। एक समय भगवान ! चन्द्रभाल उमा सहित भूमण्डल विचरण के लिये निकले। चलते-चलते वे विदर्भ देश में अमरावती पुरी में पहुँचे। वहाँ उस नगर के राजा का बनवाया एक सुन्दर शिवालय था। शंकर-पार्वती उसी में ठहर गये।
रात्रि हुई, निर्जन अन्धकार में केवल एक दीपक जगमगा रहा था। समय बिताने को माता-पार्वतीजी ने कहा देखो स्वामी! रात बहुत लम्बी है, इसीलिये आप और हम चौपड़-पांसा खेलें। शंकरजी बोले-तुम्हें हमेशा ऐसी ही बात सूझती हैं। भंग का नशा बढ़ रहा है, आँखें खुलती नहीं, पांसे कैसे डाले जायेंगे और डाल भी दिये तो उन्हें देखेगा कौन ? तुम ही उन्हें देखोगी और अपने जीते दाव बताकर मुझे परेशान करोगी।
पार्वतीजी ने कहा- सोने को तो सारी रात्रि पड़ी है। शिवजी बोले-अच्छा, सही है, परन्तु तुम्हारे पास दाव लगाने को कुछ है? पार्वतीजी ने अपनी अँगूठी उतारी और बोली-मेरे पास तो है, आप अपनी कहिए। यह सोच तो मुझे है, हर तरह मेरा ही सौदा घाटे का है।
शिवजी ने पूरी आँखें खोलीं और हँसे! यह क्यों ! पार्वती ने कहा- सुनो ! मैं हारूँगी तो तुम्हें चिन्तामणि की यह अँगूठी मिलेगी, परन्तु तुम हारे तो मुझे क्या मिलेगा-यही काले साँप, जहरीले बिच्छू, श्मशान की राख, बाघ की खाल, कुबड़ा त्रिशूल अथवा बहुत हुआ तो बूढ़ा बैल।
शिवजी हँसकर कहने लगे, तुम्हें मेरे पास यही दीखा ? देखो, मैं दे सकता हूँ गंगा की धवल धारा, सुधावर्धक चन्द्रमा,भांग का सोने का लोटा,कीमती बाघम्बर, और सभी रोग शोक को हरने वाली रुद्राक्ष की माला।कुछ शर्तों के साथ चौपड़ बिछी और तभी रात्रि आरती के पुजारी ने मन्दिर का द्वार पूजन के लिए खोला।
जब पूजा आरती करके पुजारी जाने लगे तब पार्वती जी ने पूछा हे विप्र! मेरे और तुम्हारे देव के बीच चौसर का खेल हो रहा है कहो किसकी विजय होगी?
पुजारी अकड़कर बोला- मेरे स्वामी की। तुम क्या जीतोगी गिरजाकुमारी ! इस खेल पें विजय उन्हीं की होगी। पार्वतीजी ने कहा तो जरा ठहरो, देखते जाओ। तुम में और तुम्हारे स्वामी में कितना जौहर है। प्रथम शिवजी ने पांसा फेंका, तीन काने आये और जब पार्वती जी ने पांसा डाला तो पौ बारह थे।
इसी प्रकार जितनी बार पांसे डाले गये पार्वतीजी की जीत के आए। शंकरजी बाघम्बर समेट कर बोले आज तुमने कुछ मन्त्र-प्रयोग किया है। पार्वतीजी गुस्सा होकर बोली मुझे तो तुम्हारे अभिमानी भक्त का सत्य देखना था। अब यह घमण्डी मिथ्या प्रलाप के दोष से कुष्ठग्रस्त होगा। पार्वतीजी के श्राप से पुजारी के सारे शरीर में कोढ़ निकल आया।
कुछ साल बाद अप्सराएँ पूजन के लिये वहाँ आई। पुजारी से कोढ़ होने का कारण पूछा। पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोलीं- पुजारीजी, तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। महादेवजी तुम्हारा यहकष्ट दूर करेंगे।
पुजारी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सराएँ बोलीं सोलह सोमवार व्रत कथा करें। संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेंहूँ के तीन अंगा बनावें और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, बेलपत्र आदि शिवजी को अर्पण कर अंगा प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत कथा आरती करें और सत्रहवें सोमवार को सवा सेर गेंहूँ के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बाँट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।
पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और नित पूजन करने लगे। कुछ दिन के बाद शंकर-पार्वती जी पुनः आए, पुजारी को कोढ़ मुक्त देख पार्वती ने रोग मुक्ति का कारण पूछा। उसने सोलह सोमवार का व्रतं बताया। पुजारी के कथानुसार पार्वती ने यह व्रत किया। फलस्वरूप कार्तिकेयजी माता के आज्ञाकारी हुए।
कार्तिकेयजी ने माँ पार्वतीजी से पूछा कि क्या कारण है कि मैं आपका आज्ञाकारी पुत्र हुआ। तब कार्तिकेय ने वही व्रत किया। फलस्वरुप उनको बिछुड़ा हुआ मित्र मिला। उस मित्र ने भी मिलन का कारण पूछा। बताने पर उसने अपने विवाह के लिये व्रत किया। फलतः वह विदेश गया वहाँ राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनाएगी उसी के साथ राजकुमारी का विवाह होगा।
वह ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने को एक ओर जा बैठा। किन्तु हथिनी ने माला इसी ब्राह्मण को पहनाई तो धूमधाम से उसका विवाह हुआ। सुन्दर कन्या को पाकर वह सुख से रहने लगा। एक दिन राजकन्या ने पूछा-हे नाथ आपने कौन-सा पुण्य किया जिससे सब राजकुमारों को छोड़ हथिनी ने आपके ही गले में माला पहिनाई ? ब्राह्मण ने यह 16 सोमवार व्रत कथा की महिमा बताई ? राजकन्या ने पुत्र-प्राप्ति के लिये यह व्रत किया। तो उसे पुत्र प्राप्त हुआ। बड़ा होने पर पुत्र ने पूछा माताजी ! किस पुण्य से तुम्हें मेरी प्राप्ति – हुई। बताने पर पुत्र भी राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसे राजकन्या के लिए वरण किया। राजा के देवलोक प्राप्त होने पर ब्राह्मण को – गद्दी मिली फिर भी वह इस व्रत को करता रहा।
एक दिन उसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री लेकर शिवालय में चलने को कहा परन्तु उसने वह दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया तो आकाशवाणी हुई तो तू अपनी इस पत्नी को निकाल दे नहीं तो यह तेरा सत्यानाश कर देगी।
प्रभु आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया। रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में एक बुढ़िया के पास गई, उसने दीन-दुःखी देखकर घर में रखा हुआ उसके सर पर सूत की एक पोटली रख बाजार भेजा। रास्ते में आँधी आई पोटली उड़ गई। बुढ़िया ने उसको फटकारकर भगा दिया। वह तेली के यहाँ पहुँची तो उसके सब माँट चटक गये तो उसने भी घर से निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुँची तो नदी सूख गई। सरोवर पर पहुँची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड़ गये। उसी जल को पी आराम करने के लिये जिस पेड़ के नीचे जाती वह सूख जाता।
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वन और सरोवर की यह दशा देख ग्वाले उसे महात्मा जी के पास ले गये। उसे देखकर महात्मा जी समझ गए कि यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। महात्मा जी धैर्य बंधाते हुये बोले-बेटी, तू मेरे यहाँ रह। किसी बात की चिन्ता मत कर।
रानी आश्रम में रहने लगी परन्तु जिस वस्तु से इसका हाथ लगता उसी में कीड़े पड़ जाते। दुःखी हो महात्मा जी ने पूछा बेटी ! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई ? तब रानी ने बताया कि मैं पति की आज्ञा का उल्लंघन कर महादेवजी के पूजन को नहीं गई।
महात्मा जी बोले बेटी, अब तुम सोलह सोमवार व्रत कथा आरती किया करो। रानी ने सविधि व्रत किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देख दूतों ने रानी को चलने को कहा। रानी ने मना कर दिया। दूतों ने आकर राजा को रानी का पता बताया। राजा ने जाकर महात्मा जी से कहा महाराज, यह मेरी पत्नी है। शिवजी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी की कृपा से ही लेने आया हूँ। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें।
महात्मा ने आज्ञा देदी। राजा-रानी नगर में आए। नगरवासियों नेनगर सजाया। बाजेबजने लगे, मंगलाचार होने लगा। राजा रानी शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार के व्रत कथा को करते। राजा रानी के साथ आनन्द से रहने लगा। व्रत के प्रभाव से अन्त में वे शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जो भी मनुष्य भक्ति सहित विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथा सुनता है तथा कथा सुनाता है, उसकी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं और अन्त में वह शिवलोक को प्राप्त होता है।
॥ बोलो शंकर भगवान की जय ॥
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