भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता वसुदेव व देवकी के कष्टों के कारण क्या थे?

श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण की एक कथा के अनुसार एक बार राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सत्यवती पुत्र महर्षि व्यासजी से कई प्रश्न पूछे–

भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता वसुदेव व देवकी के कष्टों के कारण क्या थे?

वसुदेव तथा देवकी ने ऐसे कौन-से कर्म पूर्वजन्म में किए थे, जिससे उनके यहां परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ?

धर्मपरायण वसुदेव जिनके पुत्र के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु अवतरित हुए, वे कंस के कारागार में क्यों बन्द हुए, उन्होंने अपनी पत्नी देवकी के साथ ऐसा क्या अपराध किया था, जिससे कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों का वध कर दिया गया?

जगत की सृष्टि करने में समर्थ उन भगवान श्रीकृष्ण ने माता देवकी के गर्भ में रहते हुए ही अपने माता-पिता को बंधन से मुक्त क्यों नहीं कर दिया?

वे छ: पुत्र कौन थे? वह कन्या कौन थी, जिसे कंस ने पत्थर पर पटक दिया था और वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और पुन: अष्टभुजा के रूप में प्रकट हुई?

जनमेजय ने कहा–हे दयानिधे ! हे सर्वज्ञ ! मेरा मन इन संदेहों से व्याकुल हो रहा है, इसलिए मेरे इन संदेहों को दूर कर मेरे मन को शान्त कीजिए।

व्यासजी ने जनमेजय से कहा–इस विषय में क्या कहा जाय। कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या? जब से इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का आविर्भाव हुआ, उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती आ रही है।

समस्त जीव कर्म रूपी बीज से उत्पन्न होते हैं। तत्त्वों के ज्ञाता विद्वानों ने तीन प्रकार के कर्म बताए हैं–संचित, प्रारब्ध तथा वर्तमान। कर्मों का ये त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है। काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक जीव का प्रारब्ध निश्चित रूप से विधि के द्वारा ही निर्मित है।

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥

सृष्टि के समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओं की उत्पत्ति होती है और कल्प के अंत में क्रमश: उनका नाश भी हो जाता है। जिसके नाश में जो निमित्त बन चुका है, उसी के द्वारा उसकी मृत्यु होती है। विधाता ने जो रच दिया है, वह अवश्य होता है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, दु:ख अथवा सुख–जो सुनिश्चित है, वह उसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है; इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त है ही नहीं।

जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खं वा सुखमेव वा।
तत्तथैव भवेत्कामं नान्यथेह विनिर्णय:।।

(श्रीमद्देवीभागवत ४।२०।३०)

राग, द्वेष आदि भाव स्वर्ग में भी होते हैं और इस प्रकार ये भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में भी विद्यमान रहते हैं। पूर्वजन्म में किये हुए वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार शरीर के साथ सदा संलग्न रहते हैं। आदि-अंतरहित यह कर्म ही जगत का कारण है। भगवान विष्णु भी अपनी इच्छा से जन्म लेने के लिए स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार के सुखों व वैकुण्ठपुरी का निवास छोड़कर निम्न योनियों (मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन) में जन्म क्यों लेते? ब्रह्मा आदि सभी देवता भी कर्म के वश में हैं और अपने किए कर्मों के फलस्वरूप सुख-दु:ख प्राप्त करते हैं।

प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले सूर्य और चन्द्र कर्म से ही नियमित रूप से परिभ्रमण करते हैं तथा सबको सुख प्रदान करते हैं, किन्तु उनके शत्रु (राहु) के द्वारा उन्हें होने वाली पीड़ा दूर नहीं होती। सूर्यपुत्र शनैश्चर ‘मन्द’ और चन्द्रमा ‘क्षयरोगी’ तथा ‘कलंकी’ कहे जाते हैं। बड़े-बड़े देवताओं के विषय में भी विधि का विधान अटल है।

भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करके वनवास का दारुण कष्ट, सीता-हरण का महान दु:ख, रावण से युद्ध व पत्नी-परित्याग की असीम वेदना सहनी पड़ी। उसी प्रकार कृष्णावतार में बन्दीगृह में जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंस-वध और फिर द्वारका के लिए प्रस्थान आदि अनेक सांसारिक दु:खों को भोगना पड़ा। रामावतार के समय देवता कर्मबन्धन के कारण वानर बने थे और कृष्णावतार में भी कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।


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